ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते |
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् || 15||
ज्ञान-यज्ञेन–ज्ञान पोषित करने के लिए यज्ञ करना; च-और; अपि-भी; अन्ये-अन्य लोग; यजन्तः-यज्ञ करते हुए; माम्-मुझको; उपासते-पूजते हैं; एकत्वेन एकान्त भाव से; पृथक्त्वेन–अलग से; बहुधा अनेक प्रकार से; विश्वतः-मुखम् ब्रह्माण्डीय रूप में।
BG 9.15: अन्य लोग जो ज्ञान के संवर्धन हेतु यज्ञ करने में लगे रहते हैं, वे विविध प्रकार से मेरी ही आराधना में लीन रहते हैं। कुछ लोग मुझे अभिन्न रूप में देखते हैं जोकि उनसे भिन्न नहीं हैं जबकि अन्य मुझे अपने से भिन्न रूप में देखते हैं। कुछ लोग मेरे ब्रह्माण्डीय रूप की अनन्त अभिव्यक्तियों के रूप में मेरी पूजा करते हैं।
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साधक परम सत्य को पाने के लिए विभिन्न आध्यात्मिक मार्गों का अनुसरण करते हैं। जो भक्त हैं, श्रीकृष्ण पहले ही उनका वर्णन कर चुके हैं। वे भगवान के अभिन्न अंग और सेवक के रूप में श्रद्धा भक्ति से युक्त होकर स्वयं को भगवान के चरण कमलों पर समर्पित करते हैं। वे अब साधकों द्वारा अनुसरण किए जाने वाले कुछ अन्य मार्गों का वर्णन कर रहे हैं।
वे मनुष्य जो ज्ञान योग के मार्ग का अनुसरण करते हैं, वे स्वयं को भगवान से भिन्न नहीं मानते। वे जैसे 'सोऽहम्' अर्थात् मैं वही हूँ 'शिवोऽहम्' अर्थात् मैं शिव हूँ जैसे सूत्रों का गहनता से चिन्तन करते हैं। उनका चरम लक्ष्य परम सत्ता के रूप में अभिन्न ब्रह्म की अनुभूति करना होता है जो शाश्वत ज्ञान और आनन्द के गुण से सम्पन्न है लेकिन वह रूप, गुण और लीला से रहित है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसे ज्ञानी योगी भी उनकी आराधना करते हैं लेकिन उनके सर्वत्र व्यापक निराकार रूप की। इसके विपरीत अष्टांग योगी स्वयं को भगवान से पृथक् देखते हैं और तदनुसार उनकी आराधना करते हैं। जबकि कुछ ब्रह्माण्ड की ही भगवान के रूप में पूजा करते हैं। वैदिक दर्शन में इसे 'विश्वरूप उपासना' अर्थात् भगवान के ब्रह्माण्डीय रूप की आराधना कहा गया है। पाश्चात्य दर्शन में इसे 'पेंथीजम' और ग्रीक दर्शन में 'पेन' (सब) और 'थियोस' (भगवान) कहा गया है। इस दर्शन का प्रसिद्ध समर्थक (स्पिनोज़ा) है। चूँकि संसार भगवान का अंग है अतः इसके प्रति दिव्य भावना रखना अनुचित नहीं है लेकिन यह अपूर्ण है। ऐसे भक्तों को भगवान के अन्य रूपों जैसे कि 'ब्रह्म' (भगवान की सर्वव्यापक अभिन्न अभिव्यक्ति), 'परमात्मा' (सब के हृदय में स्थित), और 'भगवान' (साकार रूप) का ज्ञान नहीं होता।
इन सब पद्धतियों द्वारा एक ही भगवान की उपासना कैसे की जा सकती है? श्रीकृष्ण इसका उत्तर अगले दो श्लोकों में दे रहे हैं।